Monday 31 August 2015

अफसोस उम्र कट गई लफ्जों के फेर मे...

 
कल रात मैं टीवी चैनल पर एक ज्वलंत मुद्दे पर बड़ी तगड़ी बहस देख रहा था। देश के जाने-माने विद्वानों की मंडली एक-दूसरे की टांग-खिंचाई में लगी थी। कोई विद्वान विषय के पक्ष में अपना मत रखते तो दूसरे विद्वान उसके विपक्ष में बोलने लगते। जैसे ही वे महाशय अपने डिफेंस में विषय के विपक्ष की गली पकड़ते तो विरोधी पक्ष में चले जाते। बड़ी अजब  िस्थति थी, कौन टीम इंिडया है कौन पािकस्तान कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। लेकिन एक-दूसरे की टांग खिंचाई के इस दंगल को देखकर मजा बहुत आ रहा था। कभी-कभी ये दंगल इतना उग्र हो जाता कि बेचारे टीटी एंकर को सीटी बजाकर ब्रेक का सहारा लेना पड़ता। ब्रेक खत्म होने के बाद विद्वानों की ये फौज फिर एक-दूसरे पर चढ़ाई को आमादा हो जाती। दर्शक भाग खड़े न हो इसलिए एंकर बीच-बीच में जल्द ही निष्कर्ष निकाले जाने का लॉलीपाप थमाकर कंबल ओढ़कर चुप बैठ जाता। करीब एक घंटे के इस दंगल को देखने के बाद शो खत्म हो गया। लेिकन बात जहां से उठी थी, वहीं की वहीं पर िमली। मैंने कहा ये क्या मजाक है यार बिल गेट्स से भी कीमती मेरे एक घंटे को इन्होंने यूं ही बर्बाद कर दिया। सुबह उठकर मैं अपने बेटे को स्कूल छोड़ने गया तो वहां अपने बच्चे को छोड़ने आ ए कुछ महाशय किसी विषय को लेकर एक-दूसरे से भिड़े पड़े थे, इस चर्चा में बस मारपीट नहीं थी बाकी सबकुछ था। यहां तक की एक-दूसरे को दबाने के िलए निजी जिंदगी को भी बीच में लाया जा रहा था सभी का अंदाज ऐसा लग रहा था मानो इस धरती पर उनसे बड़ा महाज्ञानी,महापंडित, महाभविष्यवक्ता पैदा ही न हुआ हो। सभी अपनी बात मनवाने पर आमदा थे। बीच-बीच में वे ऊल-जुलूल उदाहरण देकर सीना ऐसे फुलाते मानो डब्लूडब्लूई में किसी छोटे पहलवान ने बड़े पहलवान को एक ही बार में पटक दिया हो। मैं सिर खुजाते हुए और उन्हें समय बर्बाद करने का जिम्मेदार ठहराते हुए घर लौट आया। अभी मैं घर के काम से बाजार गया तो मैंने देखा कि वहां एक दुकान पर किसी मुद्दे को लेकर बड़ी तगड़ी बहस छिड़ी हुई है, मैं उस दुकान से सामान लेकर दबे पांव ऐसे निकलने लगा कि मानो कोई चोर चुपचाप खिसक रहा हो। तभी एक महाशय ने मुझे पकड़ कर कहा अरे मेरी बात का यकीन न हो तो इन भाई साहब से पूछ लो और मेरा हाथ पकड़कर मुझे आंख मार दी। मैं बेचारा लफ्जों के फेर का मारा चुपचाप ऐसे खड़ा हो गया मानो किसी पुलिसवाले ने डंडे का रौब दिखाकर खड़े रहने की सजा दे दी हो। आप ही बताओ भाईसाहब, ऐसा है न, अरे मेरी बात सही है न, आप बताओ मैं गलत कह रहा हूं...,जैसे दयनीय शब्दों से मुझे सम्मान के बदले सहमति देने के िलए ब्लैकमेल किया जाता रहा। उस भंवर से खुद को बचाने के लिए मैंने समय कम होने का हवाला देकर निकलने की मिन्नत की। घर आकर मैंने ऐसे सांस ली मानो लौट के बुद्धू घर को आए। इस दुनिया में ज्ञान की सुनामी से आखिर प्राण कैसे बचाए जाए इस बारे में मैं सोचने लगा। अचानक शायरी की एक किताब पर मेरी नजर गई। मैंने किताब खोली तो अचानक एक शेर ने मेरी तबियत खुश कर दी और मेरी समस्या का जवाब भी दे दिया। अगर आपको भी ये शेर अच्छा लगे तो इसे कभी-कभी गुनगुना लीजिएगा। महान शायर अकबर इलाहाबादी का ये शेर इस प्रकार है...।
बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफसोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में