Monday 21 March 2016

ओए हीरिए गुझिया, मैं तेरा रांझा....


प्रिय गुझिया, 
होली नजदीक आते ही मेरा और तुम्हारा प्रेम हीर और रांझा की तरह परवान चढ़ने लगता है। न जाने ऐसा क्या है तुम्हारी मिठास में जो ये दिल तुम्हें पाने के लिए मनचलों की तरह होली भर मचलता रहता है। सुना है की मेरी तरह तुम्हारे चाहने वाले छत्तीसगढ़ में तुम्हे कुसली, महाराष्ट्र में करंजी, बिहार में पिड़की, आंध्र प्रदेश में कज्जिकयालु के रूप में चाहते हैं। मुझे आज भी याद है जब मैंने होश संभाला था तो मेरे घर के किचेन के कोने से पहली बार हमारी आंखें चार हुईं थीं। तुम अपनी सहेलियों मावा, रवा,चीनी, किशमिश, चिरौंजी, काजू और इलाइची के साथ अठखेलियां कर रही थीं और मैं तुम्हें ललचाई नजरों से देख रहा था। तुम शुभ्र धवल वस्त्रों(मैदा) में अलौकिक नजर आ रही थी। आहा, जब तुम घी में तैरने के लिए गई तो तुम्हारी सोंधी महक ने मुझे मदमस्त कर दिया। मैं रोमियों की तरह तुम्हारी जैसी जूलियट को पाने के लिए बेताब हो उठा। मैं भागता हुआ मां के पास पहुंचा और तुम्हारा साथ मांगा तो मां ने अभी नहीं, पूजा के बाद कहकर मुझे डपटकर खाली हाथ लौटा दिया। उस वक्त तो जी कर रहा था कि मैं शोले के वीरू की तरह टंकी पर चढ़कर तुम्हारा हाथ मांगू...पर क्या करूं पिता जी बुरी तरह पीटे न इसलिए मैं ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। पहली बार जब तुम मेरे हाथ में आई तो धरती, गगन, वायु, अग्नि, जल जैसे पांच तत्व हमारे अद्भभुत मिलन के साक्षी बने। जब तुम्हारी मिठास मेरी जीभ में पहुंची तो ये मन अऩंत आकाश में आनंद के लिए उड़ चला। बस तबसे मैं और तुम अलौकिक प्रेम में बंध गए। जवान होते-होते हमारे रिश्ते मिठास भरे रहे लेकिन कुछ साल पहले हमारे रिश्तों में महंगाई तलाक बनकर आ गई। मुई ने सबसे पहले तुम्हें तुम्हारी सहेलियों से ही जुदा कर दिया। पहले जहां तुम आठ-दस सहेलियों के साथ अपना साज-श्रृंगार करती थीं, वहीं अब ये संख्या एक-दो में ही सीमित हो गई है। कहीं-कहीं तो गुझिया में सिर्फ हवा ही निकलती है। गुस्सा तो बहुत आता है पर क्या करूं मजबूर हूं...मैं तुझे इस महंगाई से आजाद नहीं करा सकता। कई सालों से सुन रहा हूं कि सरकार इस पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही है...भगवान जाने कब इस पर लगाम लगेगी और कब हमारा फिर से बैंड बाजा बजेगा। हमारे रिश्ते की दूरी में बची-कुछी कसर मिलावटखोरों ने पूरी कर दी। अब हम उस तरह नहीं मिल पाते, जैसे पहले मिलते थे। पिता जी कहते हैं महंगाई बहुत है...रेडीमेड गुझिया ले आओ...। घर में गुझिया बनाने की जरूरत नहीं है..। त्योहार है बचत करके चलो। मुझे ये सुनकर बहुत दुःख होता है...। मेरे तुम्हारे अमर प्रेम का ऐसा हश्र...सपने में भी नहीं सोचा था। हम तुम तो किचन में प्रेम के धागे से बंधे तो...फिर भला मैं बाहर से तुम्हारी सौतन को कैसे ला सकता हूं। घरवाली पर जो विश्वास होता है वो बाहरवाली पर नहीं हो सकता। खैर, माफ करना मजबूर हूं...पिता जी का आदेश मानना भी जरूरी है। डर है कि कहीं फिर पिटाई न हो जाए। इसलिए जा रहा हूं तुम्हारी सौतन लेने। नाराज न हो...पहले जहां तुम .पांच किलो वजन में हमारे घर को खुश करती थी वहीं अब रेडीमेड रूप में 250 ग्राम से दुखी करती हो। यानी तुम स्लिम हो गई और हम दुखी।...मेरी तरह तुम्हारे चाहने वाले इस देश के बहुत से लोग विरह की आग में जल रहे हैं। क्या करें हालात कुछ ऐसे बन गए हैं कि एडजस्ट करना पड़ रहा है। आज हर कोई एडजस्ट ही तो कर रहा है। अब होली आ गई है...फिर से तुम्हारी बहुत याद सता रही है....इसलिए दिल से ये पाती लिखने की कोशिश कर रहा हूं। .ईश्वर से प्रार्थना है कि मुई महंगाई को इस बार होलिका में जला दो और इस देश के हर देशवासी को गुझिया से मिला दो...।  

तुम्हारा
चाहने वाला
रोमियो

Sunday 20 March 2016

होली पर हुल्लड़ का निबंध



(पांचवीं पांच बार से फेल हो रहे हुल्लड़ लाल जब छठी बार पेपर देने पहुंचे तो उन्होंने पेपर में सिर्फ एक प्रश्न का ही उत्तर दिया। वह जवाब था होली पर अनोखा निबंध। लेखक के हाथ उस निबंध की सत्यापित प्रतिलिपि लगी है,पेश है उस निबंध के अनकट अंश...।)

होली पर निबंध

1-  हमका ई नाही मालूम कि होली कबसे खेली गई। पर इतना जरूर मालूम है कि भक्त प्रहलाद जब अपनी बुआ होलिका की गोदी मा बैठा राहे तबही कउनो ससुर आगी लगा दीस। चूंकि प्रहलाद भक्त राहे तो उइका भगवान बचा लीन। बुआ भगवान का नाही पूजती राहे सो भगवान उन पर ध्यान नाही दीन और  वुई जल गई। तबही से ई होली की परंपरा पड़ी।
2- पूरे इंडिया मा सबसे अच्छी होली बृज मा खेली जावत है।एक शख्स हमका बताईस राहे कि फाल्गुन के मौसम मा जब आदमी लोगन का दिमाग सटक जावत है तब वहां की औरतें लाठियन से होली खेलती हैं। लाठी मार-मार कर वुई सटके हुए दिमाग का तुरंत ठीक कर देती है।  कहा जावत है कि पत्नियन का ई होली बहुत पसंद है। इसी की तर्ज पर वुई साल भर अपने बिगड़े पति के साथ होली खेलती है और दिमाग ठिकाने लगाती हैं।
3-अपने शोले पिक्चर के विलेन गब्बर भाई का होली बहुत पसंद राहे। वुई बिचरऊ हमेशा पूछत राहे होली कब है..पर कउनो जवाब नाही देवत राहे। उनके साथी सांभा और कालिया हमेशा अकेले मा उनका ई सवाल पर गरियावत राहे।मौका पाकर जय और वीरू उनका निपटा दीन। बेचारे बिना होली खेले ही निकल लिए।
4-   हमेशा सरकार होली से ठीक पहले ही बजट पेश करती है। ई के पीछे लॉजिक ई बता जावत है कि त्योहार से पहले सरकार चेतावनी देवत है कि बेटा त्योहार मा ज्यादा पैसा न लुटाओ, पहले टैक्स चुकओ। बेचारे आम आदमी की होली हर बार यही टेंशन मा ही गुजर जाती है।
5-   भंगेडियों और नशेड़ियों का महापर्व है होली। पूरे साल इस प्रजाति के लोग इसका बेसब्री से इंतजार करता है। होली वाले दिन तो कई लोग इतना ज्यादा लोड हुई जावत है कि उनका सामान्य होए मा हफ्ता भर से ज्यादा बीत जावत है। नशेड़ी भाई इस पर्व पर एकजुटता का संदेश देते हैं। वे एकजुट होकर नशा करते हैं और समाज में फैली जातपात की बुराईयो को दूर होने का संदेश देते हैं। भारत में जितने बड़े भी नशेड़ी और गंजेड़ी प्रसिद्ध हुए उनको होली के माध्यम से ही प्रसिद्धि मिली।
6-   होली सरकारी अधिकारियन का भी प्यारा त्योहार है। होली के पास ही ई अधिकारी लोग अचानक जागरूक हुई जावत है और घूमघूम कर मिलावट करे वाले और टैक्स चोरी करे वाले लोगन का पकड़त है। दबी जुबान मा लोग काहत है कि ई सब ऊपर कमाई का चक्कर राहत है। पर भइया खुशी ई बात की होत है कि कम से कम ई लोग एक महीना तो काम करत है। 
7-   होली मा दुई कुछ खास प्रजातियन के लोगन का ज्यादा प्रभाव माना जावत है। वुई हैं देवर-भाभी और जीजा-साली। इन लोगन की होली बड़े उच्च किस्म की मानी गई है। इस पर कई रचनाकारों ने बड़े-बड़े ग्रंथ रच डाले हैं। अब सवाल ई बात है कि आखिर वुई कउन राहे जो इन लोगन की होली का सर्वश्रेष्ठ बताई दीस। अरे भइया ई धरती पर और लोग भी तो हैं उनकी होली के बारे मा भी तो कछु बताओ।
8-   होली एकमात्र ऐसा त्योहार है जेमा फटे-पुराने कपड़े, घिसे जूते और चप्पल की सबसे ज्यादा डिमांड राहत है। ऐसी विशेषता और कउनो त्योहार मा नाही है।
9-   होली मा ही सज्जन प्रजाति के लोग भी मजबूरी मा दुर्जन बन जावत है। का करे बेचारे जब कउनो जबरन रंग के जावत है तो जवाबी कार्रवाई के लिए उन्हें मजबूरी मा रंग रूपी हथियार उठाना पड़त है।
10-  गुरुजी अब लिखे का आइडिया हुई गा है खत्म। सुनो हमरे बप्पा है पुलिस मा, चाचा ट्रैफिक मा, फूफा डॉक्टर, मौसा वकीलऔर मामा पत्रकार। ई के अलावा भी कई महकमन मा अपने खानदानी सेट हैं। पांच बार से फेल हुई रहा हूं...। ई बार अगर तुम हमका फेल कियो तो समझ लेयो हम तुम्हरी होली जरूर मना देब।
     बाकी चरणस्पर्श। शेष पास होने के बाद... ।

(नोटःयह कॉपी पढ़ने का बाद गुरुजी का संसार से वैराग्य उत्पन हो गया। वह नौकरी छोड़कर हिमालय की कंदराओं में तपस्या के लिए चले गए हैं)

Wednesday 16 March 2016

सब जग होरी, कंपू में होरा...


ब्रज में होली पर एक फाग बहुत प्रसिद्ध है। सब जग होरीजा ब्रज होरा...यानी ब्रज की होली दुनिया में सबसे अलबेली है। कानपुर की होली के बारे में मैं यह फाग दोहराना चाहूंगा। यानी सब जग होरी, कंपू में होरा। अलमस्त, मनमौजी और अल्हड़ अंदाज की कानपुर की होली के क्या कहने। ब्रज के बाद भारत में यदि कोई दूसरा स्थान है जहां कई दिन लंबी होली खेली जाती है तो वो जगह है कानपुर। कंपू में होली औसतन आठ से दस दिनों की होती है। इस दौरान ठिठोली और मस्ती का जो दौर चलता है उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। अजब-गजब मजाक और चुहलबाजी लोगों को पेटफाड़ू हंसी के लिए मजबूर कर देती है। इस दौरान कुछ जुमले फिजां में तैरने लगते हैं...। मेरा दावा है कि जो मस्ती इन जुमलों को सुनकर चढ़ती है वो होली खेलने में नहीं हैं। मैं जब छोटा था तो मुझे याद है मेरे मोहल्ले का सबसे शरारती युवक जिसका नाम फुल्लड़ है, वह मस्ती करना शुरू कर देता था। गब्बर वाले अंदाज में वो होली कब है, कब है होली, कब है...पूछना चालू कर देता था। वह एक शख्स से करीब 100 से 150 बार ये सवाल पूछने की कोशिश करता था। आखिर में वो शख्स ही हाथ जोड़कर कहता था मेरे पिता जी अब तुम ही बता दो कब है होली। इसी तरह वो जमीन पर पांच रुपए का सिक्का जमा देता था। जो शख्स भी उसे उठाने की कोशिश करता तो वो उसे पकड़कर जोर-जोर से चिल्लाता...ई देखो...ई है सिक्का चोर...। बेचारा वो शख्स घबड़ा जाता और जल्दी में उसे होली का चंदा देकर निकल जाता। ऐसे ही मेरे दोस्त राजेश पर भी फिल्म शोले का नशा चढ़ जाता था। वह कनपुरिया अंदाज में शोले के डायलॉग तोड़-मरोड़ कर मौजमस्ती में जुट जाता था। ई तो सूरमा भोपाली बने फिर रहे हैं...जरा रंगों इन्हें, लुक जाओ...अंग्रेजों के जमाने के जेलर आ रहे हैं, अब तेरा क्या होगा कालिया..., ये पिचकारी हमे दे दे गब्बर..., मौसी जी आईएम रंगिंग, रंगिंग एंड रंगिंग...होली खेलिंग एंड खेलिंग, मौसी जी होरियारे देखिंग एंड भागिंग, भागिंग एंड भागिंग..., इतना सन्नाटा क्यों है भाई...कोई रंग क्यों नहीं खेल रहा, चल धन्नो..आज तुझे होली खेलनी है..., मोहल्ले में रंगने वाली पिचकारी आ चुकी है हरिराम..., आदमी तीन, गुब्बारे दो...बहुत नाइंसाफी है, सरदार मैंने आपकी गुझिया खाई है...आपसे गद्दारी नहीं करूंगा जैसे डॉयलॉगों से वह लोगों को गुदगुदाता था। होली के दौरान कानपुर में स्वांग (वेष धरना) रचकर मस्ती करने का अंदाज ही निराला है। कोई स्वामी जी का तो कोई नेताजी का रूप धरकर टोली के साथ घूमता है। स्वामी बने शख्स को बकायदा नकली बाल, वस्त्र, माला आदि पहनाकर तैयार किया जाता है। फिर उनका नामकरण किया जाता है। अक्सर उनके नाम हुल्लड़ बाबा, चिकाई गुरु, होरा गुरु और मौजी बाबा आदि रखे जाते हैं। बाबा अपने साथ 10-15 लोगों को लेकर मोहल्ले-मोहल्ले घूमते हैं। इस दौरान उन्हें जो मिलता है वह उसे बुलाकर बाबा वाले अंदाज में पूछते हैं...रंग काहे नहीं खेल रहे हो बच्चा, बाबा बिना रंगे ही चले जाएंगे तुम्हारे मोहल्ले से, आई जियो राजा बनारस, होरी मा होरा, बहुत बिंदास है ये छोरा, करो चिकाई, बाबा की टोली आई, आओ गुरु...हो जाओ शुरू जैसे जुमलों से सामने वाले को होली खेलने के लिए मजबूर कर देते हैं। इस तरह स्वांग वाले नेता के साथ टोलिया मोहल्ले-मोहल्ले पहुंचती है। आपसे मिलने आए हैं, भ्रष्ट नेता आए हैं, डालो रंग...पिलाओ भंग, कौन गुरु भई कौन गुरु...भंगड़ गुरु भाई भंगड़ गुरु, हममें है खोट, मत देना वोट, आपसे लुटने आए हैं...हमारे नशेड़ी नेता आए हैं जैसे नारे हवा में तैरते थे तो बिना हंसे रहा नहीं जाता था। नेता बना रंगा-पुता शख्स हाथ जोड़कर मुस्कुराते हुए यहीं कहता था भइया वोट नहीं नोट चाहिए...। कनपुरिया अंदाज का ये खास तरह का स्वांग अपने आप सबकी हंसी छुड़वा देता था। कानपुर में होरियारों की टोली की भी अपनी मस्ती है...। ढोल की थाप पर नाचते-गाते 20-25 लोगों की टोलियां जब हमारे मोहल्ले से गुजरती थी तो हम दौड़कर उन्हें देखने के लिए पहुंच जाते थे। पानी बचा लो, रंग डालो...चीखते हुए जब घर के नीचे से निकलती थी तो एक अलग तरह की खुशी मिलती थी। इसी दौरान कुछ जुमले भी उछलते थे...कबीरा सा..रा...रा..., आपसे मिलने आई है, होरियारों की टोली आई है..., लइया बड़ी करारी है, अपनी टोली भारी है, करो चिकाई, होली आई..., हम है कंपू के छइया, नाच ता..ता थइया..., खईके पान बनारस वाला..छोरा गंगा किनारे वाला... जैसे नारे गूंजते थे तो दिल उस टोली के साथ घूमने को मचल उठता था। हालांकि वैसी मस्ती अब नहीं दिखती लेकिन होली आते ही वो यादें जरूर रह-रहकर मुस्कुराने को मजबूर कर देती हैं। भाई मैं तो अब उन्हीं यादों से होली खेलता हूं...सोंचा कि इस बार आपको भी शामिल कर लूं... सो लिख मारा आपके लिए एक हुल्लड़ लेख। आप सभी को होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं...।