रे मन फिर चल श्रीहरि के द्वार… (भाग दो)
हर की पौडी किसी
देवलोक से कम नजर नहीं आ रही थी। हर-हर की करतल ध्वनि के साथ वेग से बहती
मोक्षदायिनी और उसके आंचल में पत्ते पर टिमटिमाते दीपक तेजी से किसी गंतव्य की ओर
बढ़ रहे थे। एक दीपक आ रहा था तो एक जा रहा था। क्या अलौकिक नजारा था। तेज
हाईमास्क लाइट के बीच गंगा की लहरें सुनहरी सी प्रतीत हो रही थीं। मानो गंगाजल न
हो कोई स्वर्ण नदी बह रही हो। मन बोला, यदि महादेव अपनी जटाओ में पतित पावनी को न
धारण करते तो शायद यह नजारा देख पाने का सौभाग्य मुझे न मिल पाता। रात के 10.30 बज
चुके थे। मैं पुल से घाट के उस पार पहुंचा तो देखा कि कुछ लोग गंगा में अभी भी
स्नान कर रहे थे। बड़ों के साथ बच्चों का उत्साह देखते ही बन रहा था। श्रद्धावश
मैं भी माता के चरणों में शीश नवाने पहुंचा तो जल छूते ही मुझे पहाड़ों के अनोखे
ठंडेपन का अहसास हुआ। एक पल के लिए कुछ सूझा ही नहीं। उस झटके से मेरी थकान को
चैतन्यता में बदल दिया। मैं इस चमत्कार से अभिभूत था। क्या दुनिया में कोई ऐसी नदी
है जिसको छूने मात्र से ही आपकी थकान गायब हो जाए। शायद नहीं…। ऐसी शक्ति
सिर्फ हमारी मां गंगा में ही है। एक मां अपने बच्चे को आखिर कैसे थका-हारा देख सकती है। यह प्रमाण उन बुद्धजीवियों के
लिए भी एक नजीर है जो गंगा को मां नहीं सिर्फ नदी समझते हैं। मैं तो कहूंगा एक बार
वह हरिद्वार आकर गंगाजल को जरूर स्पर्श
करें, ताकि उन्हें किताबी बौद्धिकता का प्रमाण मिल सके। माता के इस आशीर्वाद को
लेकर मैं परिवार के साथ वापस लौट आया। रात में मेरा परिवार तो सो गया लेकिन मुझे
नींद नहीं आ रही थी। मेरी आंखों के सामने बार-बार हर की पौडी का वह दृश्य घूम रहा
था। अगले दिन सुबह छह बजे हम फिर होटल से हर की पौडी में स्नान को निकले। मैंने
देखा सुबह छह बजे मानो हरिद्वार में किसी कुंभ का मेला लगा हो। हाथ में कमंडल लिए
खड़ाऊ की खटपट के साथ साधु-सन्तों का काफिला हर की पौड़ी की ओर तेजी से बढ़ रहा
था। गंगा स्नान के लिए जवानों, बच्चों, महिलाओं और युवितयों का उत्साह देखते ही बन
रहा था। घाट से लौट रहे भक्त हर-हर गंगे कहकर जाने वालों का हौसला बढ़ा रहे
थे। लौटने वाले जितनी गर्मजोशी से हर-हर गंगे से जाने वालों का अभिवादन करते उससे
दुगुनी गति से जाने वाले हर-हर गंगे में जवाब देते। क्या गजब नजारा था। करीब पौन
घंटे पैदल चलकर हम आखिर हर की पौडी पहुंच गए। एक पल के लिए लगा मानो हम हरिद्वार
में न हो इलाहाबाद के कुंभ में हो। कहीं से भक्तों का रेला आ रहा था, तो कहीं जा रहा था। यहां न जात-पात
थी, यहां न वर्ण भेद था, यहां न ऊंच-नीच। न कोई ब्राह्मण,न कोई शूद्र, न कोई वैश्य,
न कोई क्षत्रिय। सब एक मां की ही संतान प्रतीत हो रहे थे। सच है मां अपने बच्चों
में कभी भेद नहीं करती। यहां भी वही प्रतीत हुआ। मन ने मां से प्रार्थना की मां
तेरा प्रेम वाकई सच्चा है। तू अपने लालों का बहुत ख्याल रखती है, मां कुछ ऐसी कृपा
कर दो कि तेरी बिगड़ी संतानें सुधर जाएं। जिस मां के आंचल तले पले-बढ़े, आज उसी को
मैला कर रहे हैं। जो आज मैं महसूस कर रहा हूं, वैसा ही सबको महसूस हो। मां धन्य
हूं मैं जो मेरा जन्म ऐसे देश में हुआ जहां तू बहती है। तेरे ऋण को हमारी सैकड़ों
पीढ़ियां नहीं चुका पाएंगी। मैं अपने पांच साल के बेटे के साथ गंगाजल में स्नान को
उतरा तो ठंडे पानी के अहसास से वह तेजी से पीछे हट गया। अचानक उसके चेहरे पर मुस्कान खिली और वह मेरे साथ
गंगा स्नान करने लगा। मैंने देखा कि मैं सात-आठ डुबकी लगाने के बाद ठंड से कांपने
लगा। मेरा बेटा बड़े आनंद से गंगा में स्नान कर रहा था। करीब आधे घंटे तक उसने
गंगा में खुले मन से स्नान किया। इसे भी मैंने मां गंगा का चमत्कार माना। जो बच्चा
ठंडे पानी से कोसो दूर भागता हो, वह उससे कहीं ज्यादा ठंडे जल में ऐसे अठखेलियां
कर रहा था, मानो वह सामान्य पानी हो। मैंने मन ही मन माता के चरणों में पुनः शीश
नवाया। गंगा स्नान कर हम पूरी तरह से चैतन्य हो गए। मेरे शरीर में ऐसी स्फूर्ति आज
से पहले मैंने कभी महसूस नहीं की थी।
मेरी पत्नी झट से बोली, चौंकिए मत..मां गंगा का ही कमाल है। मेरे पापा कहते
हैं कि गंगा पहाड़ियों से बहकर आती है, वहां की औषधियों को अपने साथ बहा लाती है।
ये उन्हीं औषधि तत्वों का कमाल हैं। मन बोला, काश ये गुण यदि सब लोग जान जाएं तो
औषधि से उपचार वालों की दुकानों पर तालें पड़ जाए। मैंने गंगा को पुनः प्रणाम
किया। हम कपड़े बदलकर तैयार हो गए। तभी दिल्ली के एक बुजुर्ग मेरे बगल में अपने दस
साल के नाती को हर की पौडी के सामने का घाट दिखाकर बताते हुए दिखे। वह कह रहे थे
बेटा ये सामने का घाट जो तुम देख रहे हो यह महामना मदन मोहन मालवीय द्वीप है। इस
पर जो घड़ी वाला टॉवर बना हुआ है यह बिरला टॉवर है जो सन् 1936 में बना था। मैं बेटे का हाथ पकड़कर लौटने
लगा तो गंगा सेवा समिति वालों से भेंट हो गईं। उन्होंने बताया कि यहां नियमित गंगा आरती होती है। यदि कोई
भक्त योगदान करना चाहे तो उसके लिए कई श्रेणियां हैं। एक बाती से लेकर एक हजार
बाती तक के लिए दान दिया जा सकता है। मां के चरणों में कुछ भेंट अर्पित कर मैं आगे
बढ़ा तो मेरी इच्छा आगे के घाटों को देखने की हुई। पुल से उतरकर मैं आगे के घाटों
की ओर बढ़ा तो देखा कि वहां पिंड दान आदि के कार्य हो रहे थे। मैंने एक पंडा जी से
इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि कई लोग अपने पूर्वजों के पिंडदान और
अस्थियों को विसर्जित करने यहां आते हैं। मान्यता है कि इससे पुरखों को मोक्ष
मिलता है। इन पंडों के पास कार्यक्षेत्र बंटे हुए हैं। सभी के पास अपने यजमानों की
वंशावलि (कई पीढ़ियों का लेखाजोखा) है। उसी के आधार पर यजमान निर्धारित पंडा जी के
पास पहुंचते हैं। यह व्यवस्था आज से नहीं बल्कि सैकड़ों वर्षों से चल रही हैं। मैंने
कहा वाकई हमारे पुरखे कितने दूरदर्शी थे। मानो उन्हें मालूम था कि हमारी पीढ़ियां
हमे याद नहीं रखेंगी, उन्हें असुविधा न हो इसलिए वह ऐसी व्यवस्था कर दो जिससे
उन्हें दिक्कत न हो। पता चला कि ऐसी व्यवस्था बद्रीनाथ में भी है। अपनी संस्कृति
और धर्मपर मुझे गर्व हो रहा था। मैं थोड़ा आगे बढ़ा तो मुझे सड़क किनारे कुछ
होटलों के बाहर साधु-सन्यासियों और गरीबों की भीड़ बैठी नजर आई। मैं कुछ पल के लिए
ठिठक गया। एक सज्जन आए और उन्होंने दुकानदार को कुछ पैसे दिए। थोड़ी देर बाद सभी
को एक-एक कर चार पूड़ी और सब्जी दी जाने लगी। मैंने एक सज्जन से पूछा तो उन्होंने
बताया कि पितरों की आत्मा की शांति के लिए यहां कई लोग भोज भी कराते हैं। इस
व्यवस्था से किसी का भला हो न हो लेकिन असहायों का भला जरूर हो जाता है। अब तो मुझे हरिद्वार आने पर खुद
पर गर्व होने लगा। मां गंगा क्या कहूं…आपकी शान में मेरे पास तो शब्द ही खत्म हो
गए हैं। मैं घाट के उस पार गया तो मैंने देखा कि वहां खाने-पीने का सामान काफी
सस्ता था। कई लोग खुली जमीन पर टेंट लगाकर रह रहे थे। पता चला कि गरीबों के रहने
के लिए यहां यह व्यवस्था सरकार की ओर से की गई है। कोई भी उन्हें वहां रहने से
रोकता टोकता नहीं है। शाम को गंगा आरती में भाग लेने के लिए दोबारा हर की पौडी
पहुंचा तो भक्तों का अपार समूह बैठकर इंतजार करते दिखा। जैसे ही आरती शुरू हुई हर कोई हाथ जोड़कर जय गंगा मइया…गाने लगा।
हर की पौडी पर एक साथ कई दीपों से सजी आरती की शोभा देखते ही बन रही थी।
लाउडस्पीकर से पुजारी माता गंगा की महिमा का बखान कर रहे थे। अंत में भक्तों को
मां गंगा की रक्षा का संकल्प दिलाया गया। आरती के अंत में पत्तलों की नाव पर सजे
दीपकों का कारवां भक्तों ने एक-एक कर रवाना किया। आहा…एक दीपक, उसके पीछे दूसरा,
फिर तीसरा…फिर चौथा। गिनती का ये सिलसिला खत्म ही नहीं हो रहा था। भक्तों ने माता
का श्रृंगार दीपों से ही कर दिया। ऐसा लग रहा था मानो ये दीपक मोती, माणिक, हीरा,
पन्ना बनकर गंगा की लहर रूपी चुनरी की
शोभा बढ़ा रहे हों। वो अद्भुत नजारा आंखों में बसाकर हम होटल लौट आए। अगले दो दिन
मैं अपने परिवार के साथ मनसा देवी, चंडी देवी, कनखल, पंतजलि आश्रम, भारतमाता मंदिर
और ऋषिकेश घूमा। हर जगह मुझे उस शांति और सुख का अहसास मिला जिसकी मुझे कई बरस से
तलाश थी। उथल-पुथल वाला मन एक शांत झील बन चुका था। उसमें रह गया था तो बस
अध्यात्म और अनुभूति का निर्मल जल। चार दिन की यात्रा पूर्ण कर मैं हरिद्वारसे घर
को तो लौट आया पर अपने साथ ले आया वहां की सुखद यादें। वो यादें रहरहकर मुझे वहां
फिर चलने के लिए प्रेरित करती है। मन तो करता है कि एक बार फिर हरिद्वारहो आऊं…।
मैं तो कहूंगा अपने धर्म और संस्कृति को यदि करीब से महसूस करना है तो एक बार सभी
को हरिद्वार जरूर जाना चाहिए।
समापन
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