Wednesday 11 February 2015

आओ, फिर से कंचे खेले...


बचपन में मैं लाल, नीले, पीले, हरे कंचों को जीतने के लिए बुरी तरह से पागल रहता था। मुझे जब भी मौका लगता था मैं कंचा मैदान में महारथियों को चुनौती देने के लिए उतर जाता था। मुझे इस बात की खुशी है कि मैं कोई और मेडल तो नहीं जीत सका लेकिन बचपन में मेरे जीते हुए ढेरों कंचे मुझे आज भी ओलंपिक के मेडल के रूप में लगते हैं। रोज मेरी मां मुझे सुबह स्कूल के लिए बड़े प्यार से तैयार करके भेजती थी। रास्ते में मुझे मेरी कंचा मित्र मंडली हाईजैक कर लेती थी। उस मंडली में बड़े-बड़े दिग्गज कंचा चैंपियन थे। मेरा दावा है कि उस दौर के ओलंपिक में यदि बच्चा कंचा गेम होता तो मेरी मंडली भारत के चरणों में मेडलों का ढेर लगा देती। हमारी मंडली में कंचों की संख्या के हिसाब से हैसियत तय की जाती थी। उस वक्त मैं कक्षा सात में पढ़ता था। मेरी मंडली का सबसे सीनियर खिलाड़ी इंटर का छात्र था। उसने छोटे-बड़े कंचे मिलाकर करीब 200 से ज्यादा कंचे विरोधियों से जीते थे। उसे हम लोगों ने प्यार से कंचू गुरु का खिताब दिया था। हमारे बीच में कंचू की रिस्पेक्ट बहुत थी। हम सभी उस दौर में कंचू जैसा बनने का सपना देखते थे। हालत ये थी कि यदि उस दौर में भगवान सपने में आते और पूछते कि बेटा क्या वरदान मांगोंगे तो यही मांगते हमे कंचू से बढ़िया खिलाड़ी बना दो। मैं जब कभी अपने जीते हुए 10-12 कंचों को देखता था तो मुझे कंचू के संघर्ष की याद आ जाती थी। सोचता था कैसे उसने इतने कंचे जीते होंगे। कितना त्याग किया होगा...वाकई कितना बड़ा खिलाड़ी है यार। उस दौर में मुझे उससे बड़ा स्टार और कोई नजर नहीं आता था। मुझे अपनी पढ़ाई से ज्यादा कंचू गुरु के टिप्स याद थे। पिच्चुक (गड्ढा) में कैसे कंचा पहुंचाना है। बिलस्ता (हाथ के पंजे से नापना) से कैसे विरोधी को हराना है. अंटी में कंचे कैसे रखने हैं, तिरक्षी उंगली से कैसे कंचों को टीप उड़ाई जा सकती है। उंगुलियों को कैसे लचीला बनाया जाए तो जीत हासिल होगी, वगैरह...वगैरह। एक बार मैं कंचू गुरु के साथ एक मैदान में कंचे खेल रहा था। तभी सामने विरोधी टीम का लल्लन आया और हमकों शोले के गब्बर की तरह ललकार कर बोला हिम्मत हो तो मुकाबला करो। हमारे अंदर भी जय-वीरू की तरह जोश भर गया और बोले बेटा दम हो तो आ जाओ...। मैदान में एक साफ सुथरा स्थान देखा गया और वहां पिच्चुक बनाया गया। कंचों के जरिए हमने तय किया कि कौन कैसे खेलेगा। हमारी टीम में छह लोग थे। कंचू गुरु का पांचवा और मेरा छठा नंबर था। हमारे पास जमा पूंजी के रूप में कुल दस कंचे थे। बेईमानी न हो इसलिए हमने बगल में कंचा खेल रहे सीनियर कंचा खिलाड़ी को अंपायर के रूप में बुला लिया। हमारी टीम के खिलाड़ी ने शुरूआत में दो कंचे जीते तो हम लगान टीम की तरह शर्ट हवा में लहराकर अंगऱेजों के विकेट उखड़ने का जश्न मनाने लगे। अभी हम पूरा जश्न मना भी नहीं पाए थे कि हमारे खिलाड़ी हारने लगे। जीत के दो कंचों के साथ अंटी के छह कंचे भी चले गए। मैंने अपने मित्र कंचू से कहा यार अब तुम जाओ वरना हम बर्बाद हो जाएंगे। कंचू के खेल से विरोधी टीम भी डरती थी। इसलिए उसने भी अपने खिलाड़ियों में फेरबदल किया। कंचू ने जैसे ही खेलना शुरू किया हम ताली बजाकर कंचा जीतने की फिराक में लग गए। मैंने देखा कंचू कुछ देर में ही तीन कंचे हार गया। अचानक वो मेरे पास आया और बोला यार तुम जाओ...आज मेरा दिन नहीं है। मैंने कहा कंचू भाई तुम्हारे जैसा दिग्गज हार गया है, भला मेरी क्या बिसात। यार ये वाला आखिरी खेल भी तुमही खेल लो। लगता है आज हार हमारे नसीब में है। कंचू मुस्कुरा कर बोला, अपने आप पर क्यों शक करते हो। जानते हो यहां जितने भी खिलाड़ी खड़े हैं उन सबमें सबसे बेहतर तुम हो। आज तुम्हारा दिन है। जाओ और इस एक कंचे के दम पर इन विरोधियों को धूल चटा दो। याद रखो इस वक्त तुम जो खेल खेलोगे वो तुम्हारी जिंदगी का सबसे बेहतरीन खेल होगा। जाओ खुद पर भरोसा करो और ये मानकर उतरो कि आज कुछ भी हो जाए तुम्हे कुछ भी गंवाना नहीं है। तुम्हे बस जीत और सिर्फ जीत के लिए ही खेलना है। पता नहीं कंचू की इन बातों ने मुझ पर कैसा जादू कर दिया। मेरे दिल और दिमाग में बस जीत की ललक ही भर गई। अक्सर मैं डरते हुए खेलने उतरता था पर आज मैं छप्पन इंच की छाती लेकर मैदान में आया। विरोधी बोले शूरमा ढेर हो गए अब बाटी चूरमा आए हैं...निपटाओ भाई इनको भी। पैक करो इनका बोरिया-बिस्तर...। मैंने संभलकर खेलना शुरू किया। धीरे-धीरे मैं जीतने लगा। एक कंचा, दो, तीन...छह । एक कर मैंने अपनी टीम के सभी कंचे जीत लिए और विरोधियों के पांच कंचे भी अपनी अंटी में ले आया। विरोधियों ने खेल बंद करने का ऐलान कर दिया। हमारी टीम जश्न मनाने लगी। मैंने देखा कंचू मैदान से गायब है...। मैं दौड़ता हुआ मैदान के बाहर पहुंचा तो मैंने देखा कि कंचू एक चबूतरे पर आराम से बैठकर अमरूद खा रहा है। मैं दौड़ता हुआ उसके पास पहुंचा और बोला मालूम है कंचू क्या हुआ। कंचू मुझसे बड़े प्यार से बोला बधाई हो आज के चैंपियन। मैंने कहा यार मैं तो तुझे अपनी जीत के बारे में अभी बताने वाला था पर तुझे तो सब मालूम है। आखिर कैसे। चबूतरे से उतरकर कंचू मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोला वो इसिलए कि आज मैंने तेरी आंखों से डर को दूर किया था। तेरे दिल में जीत की भूख और जुनून भरी थी। ये चीजें आज मुझमें नहीं थी। इसलिए मैं हार गया। याद रखना विरोधी को हमेशा जीत हमारा डर ही दिलवाता है। जब हमारे अंदर डर ही नहीं होगा तो भला हमसे कौन जीत पाएगा। आज तू डरा नहीं और जीत ने तेरे कदम चूम लिए। इस फलसफे को पूरी जिंदगी में ढाल लेना...दुनिया की कोई भी बाधा तुझे आगे बढ़ने से नहीं रोक पाएगी। उस दिन मैंने कंचू के उस गुर को गांठ जैसा बांध लिया। कंचे के खेल ने मुझे बड़ा ज्ञान दे दिया था। वो दिन था और आज का दिन मुझे जीवन में इससे बड़ी सीख और किसी से नहीं मिली। अब भी रह रह कर कंचू की याद आ जाती है। कंचे खेलते बच्चों को देखकर दिल कह उठता है आओ फिर से कंचे खेले...।

 

 

 

 

 

 

  

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